करो वही, जिस पर विश्वास हो: हमने जानी है जमाने में रमती खुशबू

२०वीं शताब्दी के शुरु से, जून का तीसरा इतवार फादर्स् डे के रूप में मानाया जाता है। आज जून का तीसरा इतवार है। ३२ साल पहले, जून १९७५ में आपातकाल की घोषणा हुई थी। मेरे पिता की कुछ यादें, उस समय की हैं। मुझे लगा कि, इस श्रंखला के अन्दर, आज के दिन से अच्छा कोई दिन उनके बारे में बात करने के लिये नहीं हो सकता।

जून १९७५ में, मैं कशमीर में था। लोग पकड़े जाने लगे। मुझे लगा कि कस्बे पहुंचना चाहिये। मेरे पिता पकड़े जा सकते हैं और मां अकेले ही रह जांयगी। यही हुआ भी। मेरे कस्बे पहुंचते पता चला कि पिता को झूठे केस में डी.आई.आर. में बन्द किया गया। उन पर इल्जाम लगाया गया कि वे यह भाषण दे रहे थे कि जेल तोड़ दो, बैंक लूट लो। यह एकदम झूट था। उस समय देश की पुलिस और कार्यपालिका से सरकारी तौर पर जितना झूट बुलवाया गया उतना अभी तक कभी नहीं। डी.आई.आर. में पिता की जनामत हो गयी पर वे जेल से बाहर नहीं आ पाये। उन्हें मीसा में पकड़ लिया गया।

यह समय हमारे लिये मुश्किल का समय था। समझ में नहीं आता था कि पिता कब छूटेंगे। इस बीच, मित्रों, नातेदारों ने मुंह मोड़ लिया था। लोग देख कर कतराते थे। उनको डर लगता था कि कहीं उन्हें ही न पकड़ लिया जाय। मां यह समझती थीं। उन्होंने खुद ही ऐसे रिश्तेदारों और मित्रों को घर से आने के लिये मना कर दिया ताकि उन्हें शर्मिंदगी न उठानी पड़े। मुझे ऐसे लोगो से गुस्सा आता था। मैंने बहुत दिनो तक अपने घर कर बाहर पोस्टर लगा रखा था,

अन्दर संभल कर आना,
यहां डिटेंशन ऑर्डर रद्दी की टोकड़ी पर पड़े मिलते हैं।

इस मुश्किल समय पर कइयों ने हमारा साथ भी दिया। उन्हें भूलना मुश्किल है और उन्हें भी जो उस समय डर गये थे। इन डरने वालों में से ज्यादातर वे लोग थे जो उस समय के पहले या आज स्वतंत्रता प्रेमी होने का दावा करते हैं। इस समय में न्यायालयों के द्वारा दिये गये फैसलों को आप देखें तो यह बात, शायद अच्छी तरह से समझ सकें।

दो साल (१९७५-७७) हमने न कोई पिक्चर देखी, न ही आइसक्रीम खायी, न ही कोई दावत दी, न ही किसी दावत पर गये। पैसे ही नहीं रहते थे। अक्सर लोग, हमसे उस समय भी पैसे मांगने आते थे। उन्हें भी मना नहीं किया जा सकता था वे भी मुश्किल में थे, उनके प्रिय जन भी जेल में थे।

आपातकाल के समय, कई लोग माफी मांग कर जेल से बाहर आ गये पर पिता ने नहीं मांगी। उनका कहना था,

'मैंने कोई गलत काम नहीं किया। मैं क्यूं माफी मांगू। माफी तो सरकार को मागनी चाहिये।'
यह हुआ भी। आज उस समय के से जुड़े लोगों ने यह सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर लिया कि उस समय गलत हुआ। पिता लगभग दो साल तक जेल में रहे। १९७७ के चुनाव के बाद पुरानी सत्तारूढ़ पार्टी, चुनाव हार गयी तभी वे छूट पाये।

मां से संबन्धित आपतकाल की एक घटना मुझे आज भी अच्छी तरह से याद है। वे हमेशा कहती थीं,

'करो वही, जिस पर विश्वास हो। दिखावे के लिये कुछ करने की कोई जरूरत नहीं।'
वे न इसे कहती थीं पर इसे अमल भी करती थीं। नि:संदेह, ढ़कोसलों का उनके जीवन पर कोई स्थान नहीं था।


शिव अराधना ... से कोई नहीं छूटेगा।


आपतकाल के दौरान, जब मेरे पिता जेल में थे तो हमारे शुभचिन्तक हमारे घर आये। उन्होंने मेरी मां से अकेले में बात करने को कहा। बाद में मैंने मां से पूछा कि वे क्यों आये थे और क्या चाहते थे। मां ने बाद में बताया कि वे कह रहे थे कि यदि मां मंदिर में शिव भगवान की आराधना करेंगी, तो पिता छूट सकेंगे। मां ने यह नहीं किया। वे आर्यसमाजी थीं और इस तरह के कर्मकाण्ड (ritual) पर उनका विश्वास नहीं था। उनका कहना था कि,

'शिव अराधना केवल मन की शान्ति के लिये है। उससे कोई नहीं छूटेगा। लोग तो छूटेंगे न्यालाय से या फिर जनता के द्वारा।'

उच्च न्यायालय ने तो हमारा साथ दिया पर सर्वोच्च न्यायालय ने हमें शर्मिन्दा किया। मैं इसकी कहानी भी ज्लद लिखूंगा पर यहां प्रसिद्ध न्यायविद सीरवाई की राय जरूर बताना चाहूंगा। सीरवाई बहुत साल तक महाराष्ट्र राज्य के महाधिवक्ता रहे और आपकी भारतीय संविधान पर लिखी पुस्तक अद्वतीय है। इस पुस्तक में वे कहते हैं कि,

‘The High Courts reached their finest hour during the emergency; that brave and courageous judgements were delivered; ... the High Courts had kept the doors ajar which the Supreme Court barred and bolted’. (Constitution of India: Appendix Part I The Judiciary Of India)
'आपातकाल का समय, उच्च न्यालयों के लिये सुनहरा समय था। उस समय उन्होने हिम्मत और बहादुरी से फैसले दिये। उन्होने स्तंत्रता के दरवाजों को खुला रखा पर सर्वोच्च न्यायालय ने उसे बन्द कर दिया।'

आपातकाल के बाद, वे सब हमारे पास पुन: आने लगे जिन्होंने हमसे मुंह मोड़ लिया था। मां, पिता ने उन्हें स्वीकार कर लिया, हमने भी। सरकार ने पिता को राजदूत बनाकर विदेश भेजने की बात की पर उन्होने मना कर दिया। वे अपने सिद्घान्त के पक्के थे। आपातकाल के समय न माफी मांगी और न ही बाद में कोई पद लिया। उनका कहना था,

'मैंने समाज सेवा किसी पद के लिये नहीं की।'
मुझे अच्छा लगता है, गर्व भी होता है कि मेरी मां, मेरे पिता ऐसे थे। जिन्होने हमेशा वह किया जो उन्हें ठीक लगता था - दुनिया के दिखावे के लिये नहीं।

भूमिका।। Our sweetest songs are those that tell of saddest thought।। कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन, बीते हुए दिन वो मेरे प्यारे पल छिन।। Love means not ever having to say you're sorry ।। अम्मां - बचपन की यादों में।। रोमन हॉलीडे - पत्रकारिता।। यहां सेक्स पर बात करना वर्जित है।। जो करना है वह अपने बल बूते पर करो।। करो वही, जिस पर विश्वास हो।। अम्मां - अन्तिम समय पर।। अनएन्डिंग लव।। प्रेम तो है बस विश्वास, इसे बांध कर रिशतों की दुहाई न दो।। निष्कर्षः प्यार को प्यार ही रहने दो, कोई नाम न दो।। जीना इसी का नाम है।।

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