मित्रता दिवस पर सैर सपाटा - विश्वसनीयता, उत्सुकता, और रोमांच

कुछ दिन पहले रत्ना जी मे भूले बिसरे किस्से-१ नामक चिट्ठी में लिखा
'यात्रा-विवरण मैंने कभी नहीं लिखे। मुझे लगता था कि यात्रा अगर अनूप जी साइकिल यात्रा की तरह ज़रा वखरी टाइप की हो तभी लिखने में कुछ नवीनता है वरना चट-पट बस, कार, रेल या जहाज़ में बैठे और गंतव्य पर पंहुच कर घिसे-पिटे पर्यटन-स्थल देखकर उस पर बयानबाज़ी करना तो सरासर अधजल गगरी छलकत जाए के समान बचकाना और बेमाना है। '
वे आगे लिखती हैं कि,
'अन्तरजाल पर और पर्यटन-पुस्तकों में किसी स्थान के विषय में चाहे पूर्ण जानकारी मिल जाए पर उस स्थान का आँखों देखा हाल उतना ही महत्वपूर्ण है जितना किसी पुस्तक को पढ़कर उसके विषय में बात करना या लिखना । इससे न केवल उस किताब/स्थान के बारे में अन्य लोगों के मन में दिलचस्पी पैदा होती है बल्कि जिन्होने उस किताब को पढ़ा होता है या वो स्थान देखा होता है उन्हें उस विषय से सम्बन्धित, दिमाग के पिछवाड़े वाले स्टोर में पड़ी, ढेरों बातें याद आ जाती है और विचारों की रेल सरपट दौड़ने लगती है।'
रत्ना जी तो घिसी पिटी जगह नहीं जाती हैं वे तो कभी सिंगापुर, तो कभी मलेशिया तो कभी हाँककाँग जाती हैं। हांलाकि घिसी पिटी जगह पर भी उनके द्वारा लिखी गयी 'भूले बिसरे किस्से-१' वाली चिट्ठी शानदार है।

उनकी यह बात एकदम सच है कि दूसरे की चिट्ठी पढ़ने से औरों के मन में भी रेल दौड़ने लगती हैं। अब देखिये उनकी चिट्ठी को पढ़ने के बाद मैं यात्रा विवरण को के बारे में सोचने लगा; वे क्या कारण हैं जो किसी यात्रा विवरण को यादगार बनाते हैं?

काश मुझे यह मालुम होता :-( मैं भी रतना जी जैसी बढ़िया चिट्ठी लिख देता।

मेरी पिछली श्रंखला हमने देखी है जमाने में रमती खुशबू समाप्त समाप्त हो गयी है; आज की दुर्गा भी समाप्त के करीब है। रतना जी चिट्ठी से ख्याल आया कि क्यों न मैं एक नयी श्रंखला शुरू करूं, जिसमें यात्रा विवरण की यादगार पुस्तकों और उसके लेखकों के बारे में बात करूं। धन्यवाद - रत्ना जी।

एक अच्छे यात्रा विवरण के लिये जरूरी नहीं है कि यात्रा किसी नयी जगह की जाय या फिर अनूठी तरह से की जाय। यदि यात्रा विवरण -
  • विश्वसनीय है;
  • पाठक को रोमांचित करता है;
  • उसके मन में उत्सुकता जगाता है -
तो निश्चित जानिये कि वह यादगार वर्णन बनेगा चाहे वह घिसी पिटी जगह का हो या फिर घिसी पिटी तरह से की गयी यात्रा का हो। ऐसे वर्णन, हमेशा पाठक के करीब पहुंचाते हैं। यह भी सच है कि नयी जगह की यात्रा करने में या अनूठे तरह से यात्रा करने में रोमांच या फिर उत्सुकता पैदा करना आसान है पर यादगार यात्रा वर्णन के लिये तो यात्रा करना भी जरूरी नहीं।
'क्या कहा, बिना यात्रा के, यात्रा विवरण।'
जी हां, आपने ठीक सुना - बिना यात्रा के यात्रा विवरण।

यदि आप दुनिया की सबसे प्रसिद्ध यात्रा विवरण को देखें -
  • जिसे दुनिया की सारी भाषाओं में अनुवाद किया गया;
  • जिसे सबसे ज्यादा बार पढ़ा गया;
  • जो लगभग १३० साल बीत जाने के बाद भी उतना लोकप्रिय है जितना कि तब जब वह लिखा गया;
  • जब वह मुख्य अखबारों में कड़ियों में प्रकाशित हो रहा था तो इतना विश्वसनीय था कि लोग उसे सच मान बैठे और उसमें लगी शर्त के ऊपर अनगिनत पैसों का सट्टा लगा बैठे -
वह यात्रा विवरण लेखक ने घर में बैठ कर लिखा था। वह न केवल उस समय पर आज भी लोगों की मन पसन्द है।

जी हां, आप सही समझ रहे हैं, उस यात्रा वर्णन का नाम हैः अस्सी दिन में दुनिया की सैर (Around the World in Eighty days)। इसे जुले वर्न (Jules Vern) ने लिखा है। जुले वर्न को विज्ञान कहानियों के जनक कहा जाता है। और इस पुस्तक पर चर्चा करने से पहले हम उन्हीं के बारे में बात करेंगे।

इस चिट्ठी को समाप्त करने से पहले मैं रत्ना जी और अन्य चिट्ठाकार बन्धुवों से एक अनुरोध करना चाहूंगा। यदि आप किसी चिट्ठाकार बन्धु या उसकी चिट्ठी का उल्लेख अपनी चिट्ठी में करते हैं तो उसे संदर्भित चिट्ठाकार के चिट्ठे से या फिर उसकी उस चिट्ठी से या फिर उसके संक्षिप्त आत्म विवरण से कड़ी के रूप में जोड़ दें, जैसा कि मैंने इस चिट्ठी में रत्ना जी की चिट्ठियों से किया है या प्यार को प्यार ही रहने दो, कोई नाम न दो: हमने जानी है जमाने में रमती खुशबू - निष्कर्ष या अंतरजाल पर हिन्दी कैसे बढ़े की चिट्ठी पर अन्य चिट्ठाकारों की चिट्ठियों से किया है।

किसी और की चिट्ठी को जोड़ना सरल है - वर्डप्रेस और ब्लॉगर में तो बहुत आसान। बस आप अपनी चिट्ठी में उन शब्दों को चुनिये - वर्डप्रेस में जंजीर पर तथा ब्लॉगर में पर हरे गोले (जिसमें ऊपर कोष्टक में काले का चिन्ह है) पर – चटका लगाइये। उसके बाद चिट्ठे का, या फिर उस कड़ी का, या आत्म विवरण की यू.आर.एल. को बाहर आयी खड़की में चिपकाइये। यह करने कई कारण हैं:
  • यह वेब शिष्टाचार की निशानी है;
  • कभी कभी कुछ चिट्ठियां पढ़ने छूट जाती हैं - खुदा न खास्ता यदि यह वह चिट्ठी हो जिसमें किसी का संदर्भ हो और वह जवाब न दे - शर्म की बात है न। रत्ना जी ने मेरी गोवा यात्रा संस्मरण की याद की और यदि मैंने टिप्पणी भी न की होती तो गंवारपना हो जाता। संदर्भित करने पर, यदि उस समय पढ़ने से छूट भी जाय तो बाद में पकड़ा जा सकता है और संदर्भित व्यक्ति जवाब दे सकता है;
  • दूसरा व्यक्ति आप की चिट्ठी के द्वारा वहां आसानी से पहुंच सकेगा जिसके बारे में आप बात कर रहें हैं। जो आपकी चिट्ठियों को पसन्द करता है उसका, आपकी पसन्द की चिट्ठियों को पसन्द करने की सम्भावना ज्यादा है;
  • आज हम एक दूसरे को जानते हैं। सोचिये आज से सौ साल बाद जब कोई रत्ना जी की यह चिट्ठी पढ़ेगा तो क्या वह उन्मुक्त को जानता होगा। यदि लिंक होती तो तुरन्त मेरे चिट्ठे में पहुंच सकता था। मेरे चिट्ठे से वह रत्ना जी के चिट्ठे पर पहुंच सकता है क्योंकि लिंक है;
  • यह अंतरजाल पर संदर्भित व्यक्ति की विद्यमानता को बढ़ाता है। यह, आपकी तरफ से, संदर्भित व्यक्ति के लिये, बहुत छोटा पर अनमोल तोहफ़ा है।
यदि,
  • आप संदर्भित व्यक्ति से नाराज हैं; या
  • आप अंतरजाल पर, उसकी विद्यमानता नहीं बढ़ाना चाहते; या फिर
  • उसे पसन्द नहीं करते फिर भी उसे संदर्भित करना पड़ रहा है,
तो अवश्य उसकी कड़ी न दे।

संदर्भ न करना, एक तरह से यह दर्शाता है कि,
  • आप उसे पसन्द नहीं करते हैं;
  • यह उस व्यक्ति के लिये एक तरह का उलाहना है;
  • उससे रूठना है।
रत्ना जी यदि अज्ञान्तावश मेरे द्वारा कोई गुस्ताखी हो गयी है तो पहले से ही माफी मांग लेता हूं।

आज मित्रता दिवस भी है मैं सारे चिट्ठाकार बन्धुवों की तरफ मित्रता का हाथ बढ़ाता हूं। आइये, हम सब मिल कर, आने वाले समय में अंतरजाल पर हिन्दी को सशक्त माध्यम बनायें।

अगली बार मिलेंगे हैं विज्ञान कहानियों के जनक और पिता - जुले वर्न – के साथ।

पानी बरस रहा है लगता है कि आज का गोल्फ गोल हुआ।

सैर सपाटा - विश्वसनीयता, उत्सुकता, और रोमांच
भूमिका।।

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