आचार्य चतुरसेन के द्वारा लिखी पुस्तक - वयं रक्षाम:


यह चिट्ठी आचार्य चतुरसेन के द्वारा लिखी गयी पुस्तक व्यं रक्षाम: की पुस्तक समीक्षा है।

मैंने 'बाईबिल, खगोलशास्त्र, और विज्ञान कहानियां' की श्रंखला की चिट्ठी 'क्रिस्मस को बड़ा दिन क्यों कहा जाता है' लिखा था,

'जीतने के लिये, अपनी संस्कृति, सभ्यता, और धर्म कायम करो।'

मैंने  कई साल पहले आचार्य चतुरसेन की पुस्तक वयं रक्षाम: पढ़ी थी। इसके मुख्य पात्र रावण है न कि राम। यह रावण से संबन्धित  घटनाओं का जिक्र करती है और उनका दूसरा पहलू दिखाती है।  मुझे ऐसा ख्याल था कि यह बात मैंने इस पुस्तक में पढ़ी थी। मैंने इस चिट्ठी को लिखने से पहले इस पुस्तक को पुनः पढ़ा। इसमें यह पंक्ति तो नहीं मिली पर आर्य और संस्कृति के  संघर्ष के बारे में चर्चा है। 

आर्य संस्कृति के बारे में यह कुछ इस प्रकार बताती है,

'उन दिनों तक भारत के उत्तराखण्ड में ही आर्यों के सूर्य-मण्डल और चन्द्र मण्डल नामक दो राजसमूह थे। दोनों मण्डलों को मिलाकर आर्यावर्त कहा जाता था। उन दिनों आर्यों में यह नियम प्रचलित था कि सामाजिक श्रंखला भंग करने वालों को समाज-बहिष्कृत कर दिया जाता था। दण्डनीय जनों को जाति-बहिष्कार के अतिरिक्त प्रायश्चित जेल और जुर्माने के दण्ड दिये जाते थे। प्राय: ये ही बहिष्कृत जन दक्षिणारण्य में निष्कासित, कर दिये जाते थे। धीरे-धीरे इन बहिष्कृत जनों की दक्षिण और वहां के द्वीपपुंजों में दस्यु, महिष, कपि, नाग, पौण्ड, द्रविण, काम्बोज, पारद, खस, पल्लव, चीन, किरात, मल्ल, दरद, शक आदि जातियां संगठित हो गयी थीं।'

पुस्तक के अनुसार  रावण ने दक्षिण में जोड़ने के लिए नयी संस्कृति का प्रचार किया। उसने उसे रक्ष  संस्कृति का नाम दिया। रावण जब भगवान शिव की शरण में गया तो उसने इसे कुछ इस तरह से बताया, 

'हम रक्षा करते हैं। यही हमारी रक्ष-संस्कृति है। आप देवाधिदेव हैं। आप देखते ही हैं कि आर्यों ने आदित्यों से पृथक् होकर भारतखण्ड में आर्यावर्त बना लिया है। वि निरन्तर आर्यजनों को बहिष्कृत कर दक्षिणारण्य में भेजते रहते हैं। दक्षिणारण्य में इन बहिष्कृत वेद-विहीनव्रात्यों के अनेक जनपद स्थापित हो गये हैं। फिर भारतीय सागर के दक्षिण तट पर अनगिनत द्वीप-समूह हैं, जहां सब आर्य, अनार्य, आगत, समागत, देव, यक्ष, पितर, नाग, दैत्य, दानव, असुर परस्पर वैवाहिक सम्बन्ध करके रहते हैं। फिर भी सबकी संस्कृति भिन्न है, परन्तु हमारा सभी का एक ही नृवंश है और हम सब परस्पर दायाद बान्धव हैं। मैं चाहता हूं कि मेरी रक्ष-संस्कृति में सभी का समावेश हो, सभी की रक्षा हो। इसी से मैंने वेद् का नया संस्करण किया है और उसमें मैंने सभी दैत्यों-दानवों की रीति-परम्पराओं को भी समावेशित किया है, जिससे हमारा सारा ही नृवंश एक वर्ग और एक संस्कृति के अन्तर्गत वृद्घिगत हो। आप देखते हैं कि गत एक सौ वर्षों में तेरह देवासुर-संग्राम हो चुके, जिनमें इन बस दायाद् बान्धवों ने परस्पर लड़कर अपना ही रक्त बहाया। विष्णु ने दैत्यों से कितने छल किए। देवगण अब भी अनीति करते हैं। काश्यप सागर-तट की सारी दैत्यभूमि आदित्यों  ने छलद्घबल से छीनी है। अब सुन रहा हूं कि देवराट् इन्द्र चौदहवें देवासुर-संग्राम की योजना बना रहा है। ये सब संघर्ष तथा युद्घ तभी रोके जा सकते हैं, जब सारा नृवंश एक संस्कृति के अधीन हो इसीलिये मैंने अपनी वह रक्ष-संस्कृति प्रतिष्ठित की है।'

इस पुस्तक के अनुसार रावण ने उत्तर भारत में अपने दो सैन्य सन्निवेश स्थापित किये पहला दण्डकारण्य में और दूसरा नैमिषारण्य।

दण्डकारण्य का राज्य अपनी बहिन सूर्पनखा को दिया। उसे वहां अपने मौसी के बेटे खर और सेनानायक दूषण को चौदह हजार सुभट राक्षस देकर उसके साथ भेज दिया। दण्डकारण्य में राक्षसों का एक प्रकार से अच्छी तरह प्रवेश हो गया तथा भारत का दक्षिण तट भी उसके लिए सुरक्षित हो गया।

लंका में कुबेर को भगा देने के बाद बहुत सारे यक्ष यक्षणी वहीं रूक गये थे। ताड़का भी एक यक्षणी थी। उसने रक्ष संस्कृति स्वीकार कर ली।  उसने रावण से कहा,

'हे रक्षराज, आप अनुमति दें तो मैं आपकी योजनापूर्ति में सहायता करूं। आप मेरी बात ध्यानपूर्वक सुनिए। मेरा पिता सुकेतु यक्ष महाप्रतापी था। भरतखण्ड में- नैमिषारण्य में उसका राज्य था। उसने मुझे सब शस्त्र-शास्त्रों की पुरूषोचित शिक्षा दी थी और मेंरा विवाह धर्मात्मा जम्भ के पुत्र सुन्द से कर दिया था जिसे उस पाखण्डी ऋषि अगस्त्य ने मार डाला। अब उस वैर को हृदय में रख मैं अपने पुत्र को ले जी रही हूं। जो सत्य ही आप आर्यावर्त पर अभियान करना चाहते हैं, तो मुझे और मेरे पुत्र मारीच को कुछ राक्षस सुभट देकर नैमिषारण्य में भेज दीजिए, जिससे समय आने पर हम आपकी सेवा कर सकें। वहां हमारे इष्ट-मित्र, सम्बन्धी-सहायक बहुत हैं, जो सभी राक्षस -धर्म स्वीकार कर लेंगे।'

रावण ने, ताड़का की यह बात मान ली। उसे राक्षस भटों का एक अच्छा दल दिया जिसका सेनानायक उसी के पुत्र मारीच को बनाया तथा सुबाहु राक्षस को उसका साथी बनाकर नैमिषारण्य में भेज दिया।

पुस्तक के अनुसार जो बिहार प्रान्त में जो शाहाबाद जिला सोन और गंगा के संगम के निकट है वही उस काल में नैमिषारण्य था। आज का नासिक उस समय एक दण्डकारण्य कहलाता है। मैं नहीं जानता कि यह कितना प्रमाणिक है। क्या वहां पर इसका कोई सबूत है अथवा नहीं। यदि किसी को कुछ मालुम हो तो क्या कुछ इस बारे में लिखेंगे।

यह पुस्तक रावण से संबन्धित बहुत सी घटनाओं को बताती है। यदि आपको पौराणिक घटनाओं में रूचि हैं तो इस पुस्तक को पढ़ें।


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