यह चिट्ठी आशापूर्णा देवी के बारे में और उनके लिखे उपन्यास 'न जाने कहां कहां' की समीक्षा है।
इसे आप रोमन या किसी और भारतीय लिपि में पढ़ सकते हैं। इसके लिये दाहिने तरफ ऊपर के विज़िट को देखें।
इसे आप सुन भी सकते है। सुनने के लिये यहां चटका लगायें। यह ऑडियो फाइल ogg फॉरमैट में है। इस फॉरमैट की फाईलों को आप,
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लगभग दो दशक पहले, दूरदर्शन में, 'प्रथम प्रतिश्रुति' नामक टीवी सीरियल शुरू हुआ था। दो या तीन एपीसोड के बाद इस सीरियल ने मुझे जकड़ लिया। कुछ विस्तार से पता करने पर मालुम हुआ कि यह, इसी नाम के उपन्यास का टीवी रूपान्तर है। मैं, इस उपन्यास को खरीद लाया। इस तरह से, ८ जनवरी १९०९ में जन्मी, ज्ञानपीठ पुरुस्कार, भुवन मोहिनी समृति पदक, और रवीन्द्र पुरुस्कार से सम्मानित, आशापूर्णा देवी ने मेरे जीवन में कदम रखा। मैंने, इस उपन्यास को एक बार में ही पढ़ डाला। यह उनके जीवन में घटित घटनाओं पर ही आधारित है और एक तरह की जीवनी सी है।
आशापूर्णा देवी अपने घर में - चित्र द टेलेग्राफ के इस लेख के सौजन्य से।
अपने जीवन की घटनाओं के बाद की कथा, आशापूर्णा देवी ने, दो अन्य उपन्यास, 'सुवर्णलता' और 'बकुल कथा' में लिखा है। मैंने इनको भी चाट डाला। मुझे, यह तीनो उपन्यास, बेहद पसन्द आये - महिला सशक्तिकरण, उसका महत्व समझाने के लिये, शायद हिन्दी में इनसे बेहतर उपन्यास नहीं लिखे गये हैं। मैंने पिछले दो दशकों में इन तीनो उपन्यासों की दर्जनों प्रतिलिपियां अपने मित्रों, सहयोगियों, उनकी पत्नियों को भेंट में दी हैं। वह दिन है और आज का दिन है कि वे अपनी पुस्तकों के जरिये मेरी प्रिय महिला मित्रों में से एक हैं। मैंने आशापूर्ण देवी से कई बार मिलने की कोशिश की पर यह न हो पाया। वे १९९५ में ही चल बसीं।
मुझे इनके द्वारा लिखी और हिन्दी में अनुवादित कहीं भी कोई पुस्तक मिलती है जो मैंने न पढ़ी हो तो वह बिना सोचे खरीद लेता हूं। मैं जहां तक समझता हूं कि मैं शायद उनकी द्वारा लिखी सारी पुस्तके पढ़ चुका हूं।
कुछ समय पहले मुझे एक पुस्तक मेले में रहने का मौका मिला। इसमें मुख्यतः हिन्दी की पुस्तके थीं। मैंने यहां से हिन्दी की पुस्तकें खरीदीं। उन पुस्तकों में कुछ पुस्तकें, आशापूर्णा देवी की लिखी पुस्तकों का हिन्दी अनुवाद है। मैंने सबसे पहले इन्हीं का लिखा उपन्यास 'न जाने कहां कहां' पढ़ा। यह एक अवकाश प्राप्त विधुर प्रवासजीवन, उनके परिवार और उनके संबन्धियों की घटनाओं को लेकर लिखी गयी है।
मेरी मां हमेशा कहा करती थीं कि वे मेरे पिता के जीवन काल में ही मरना चाहती हैं। वे हमेशा सफेद साड़ी पहना करती थीं पर उन्होंने क्रिया कर्म के लिये लाल साड़ी चुन रखी थी। उनकी मृत्यु के बाद मैंने पहली बार उनको रंगीन साड़ी में देखा।
मैं कुछ महिलाओं से मिला हूं जो यह कहती हैं कि वे अपने पति की मृत्यु के बाद मरना चाहती हैं। मैं इसे ठीक से नहीं समझ पाता था और हमेशा अपनी मां की बात को ही ठीक समझता था पर इस उपन्यास को पढ़ने के बाद बहुत कुछ और भी समझ में आया।
'न जाने कहां कहां' उपन्यास में अवकाश प्राप्त विधुर प्रवासीजीवन की लाचारी, विवशता का भी चित्रण है। इसको आशापूर्ण देवी कुछ इस प्रकार से बताती हैं,
'क्या विधवा होने के बाद, औरतें ही असहाय होती हैं? पुरुष नहीं?'एक दूसरी जगह उनकी मनस्थिति को कुछ इस तरह से लिखती हैं,
'लेकिन यह सब बातें क्या छोटे लड़के से कह सकते हैं? क्या कह सकते हैं क्या...एक और जगह वे प्रवासीजीवन के द्वारा - दर्शन की, जीवन की - गहरी बात समझाती हुई लिखती हैं,
सबसे बड़ी तकलीफ है पराधीनता। असहायपन।
खैर जो बात कह सकते हैं और जो सचमुच सबसे कष्टकर हो रहा है वह है अकेलापन।'
'अपने चारों ओर एक घेरा बना कर हम अपने को उसी में कैद कर लेते हैं; और फिर अपना ही दुख, अपनी वेदना, अपनी समस्या, अपनी अवसुविधा, इन्हें बहुत भारी, बहुत बड़ा समझने लग जाते हैं। और सोचते हैं कि हमसे बुरा हाल और किसी का नहीं होगा। हमसे बड़ा दुःखी इन्सान दुनिया में है ही नहीं। जब नज़र साफ कर आंखें उठा कर देखता हूं तो पाता हूं दुनिया में कितनी समस्याएं हैं। शायद हर आदमी दुखी है। अपने को महान समझकर दूसरे को दुःखी करते हैं हम। अपने को असहाय जताकर दूसरे को मिटा डालते हैं हम।'
इस उपन्यास में घटनाओं का ऐसा ताना बाना बुना गया है कि मैं उसे छोड़ ही नहीं सका पूरा पढ़ कर ही चैन आया। अच्छा उपन्यास है। नहीं पढ़ा है तो पढ़ें।
मैंने पुस्तक मेले से बहुत सारी पुस्तकें खरीदीं हैं। मुझे जो अच्छी लगेंगी उसके बारे में आने वाले समय में चर्चा करूंगा।
इस साल आशापूर्णा देवी को जन्म लिये १०० साल पूरे हो गये हैं। शायद आपमें से कुछ उनकी यादों को हमारे साथ साझा करना चाहें। मनीष जी ने उनकी पुस्तक 'लीला चिरन्तन' उपन्यास की समीक्षा यहां की है। आप भी क्यों नहीं उन पर या उनके किसी उपन्यास पर कुछ लिखते।
सांकेतिक शब्द
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