मेरे शरीर में हनुमान जी आ गये थे

बच्चों के साथ समय बिताना जरूरी है।
इस चिट्ठी में, अपने बेटे के साथ बिताये, कुछ भावुक पलों की चर्चा है।



कुछ दिन पहले ज्ञानदत्त जी की चिट्ठी में, उनके द्वारा दिखाये गये विडियो में, जहां एक पिता अपनी पुत्री को पीठ पर बिठा कर ले जा रहा है पर उनकी पत्नी का ऊलाहना पढ़ा,
'तुमने अपने बच्चों को कभी इस तरह पीठ पर नहीं उठाया होगा। कम से कम ज्ञानेन्द्र को तो कभी नहीं। क्यों रख्खा उससे छत्तीस का आंकड़ा शुरू से?'
निशांत जी की टिप्पणी पर, उनका उत्तर,
'ऐसा था जरूर। कैरियर बनाने का बोझ कुछ ज्यादा ही था तब। या समय प्रबन्धन लचर?' 
शायद यह सच न हो। वास्तव में जरूरत के समय, हमें कहीं से ऐसी शक्ति मिल जाती है, जिसकी हम कल्पना नहीं कर पाते हैं।

यह १९८० के दशक की बात है। मैं अपने मित्र की शादी में मुम्बई गया था।  मुन्ना ८-९ साल का था वह भी मेरे साथ था। लेकिन, शुभा अपने शोध में वयस्त थी इसलिये कस्बे में ही रह गयी थी। मेरी चाचा और चाची मुम्बई में सरकारी नौकरी करते थे। चाची डाक्टर थीं और वे अस्पताल में काम करते थीं। हम उन्हीं के पास ठहरे थे। 

हमारे पास एक दिन खाली था। हमने मुम्बई देखने के लिये, पर्यटन विभाग से बस का टूर लिया। 

हम गोरेगावं में स्थित आरे दूध-डेरी भी देखने गये। वहां हम लोग को कुछ देर रुकने की बात थी। वहां पार्क था। हम लोग वहां गये। वहां एक ५० फीट लम्बी रेलिंग भी लगी थी। यह वास्तव में जमीन में जमी नहीं थी पर वहीं पर खड़ी थी पर इस बात की कोई नोटिस नहीं थी। वह रेलिंग मुन्ने के पैर पर गिर गयी। वह मनों भारी होगी। मैंने उसे कुछ ऊपर किया फिर मुन्ने का पैर बाहर किया। उसे न केवल दर्द हो रहा था पर वह डर भी गया था।

बस में एक महिला गाइड और बस ड्राइवर थे। मैंने उन्हें डाक्टर के पास ले चलने की बात की। लेकिन उन्होंने वहां जाने के लिये मना कर दिया। उनके अनुसार वे रास्ता नहीं बदल नहीं सकते थे। वहां पर लोगों ने डेरी के डाक्टर का घर बताया जो कि लगभग ३५०-४०० मीटर दूर था। वहां कोई सुविधा न होने के कारण मैं मुन्ने को गोदी में उठा कर डाक्टर के पास ले गया।

वह डाक्टर भी अजीब था। न व हिन्दी, न ही अंग्रेजी बोल पाता था - केवल मराठी बोल पा रहा था। मैं मराठी नहीं समझ पा रहा था। मुझे आश्चर्य हुआ कि हिन्दुस्तान में भी, ऐसे डाक्टर हो सकते हैं जो अंग्रेजी न बोल सकें। मुझे विश्वास ही नहीं हुआ कि वह डाक्टर है। मुझे लगा कि मैं अपनी चाची के पास, उनके अस्पताल में जाऊं। मैंने उससे कुछ बर्फ ली। उसे रुमाल में रख कर, मुन्ने को पैर पर रखने को कहा, ताकि वहां सूजन न हो, और वापस चला।  

वहां से वापस आने के लिये कोई सुविधा नहीं थी। मुझे इतना बताया कि किस तरफ से, मुझे टैक्सी मिल सकती है। मैं मुन्ने को गोद में लिये लगभग२-३ किलोमीटर उठा कर गया वहां पर एक तीन व्हीलर मिला। उसने अस्पताल तक ले जाने में, असमर्थता बताई, क्योंकि  मुम्बई के अन्दर तीन व्हीलर चलाने की मनाही थी पर वह वहां तक ले गया जहां मुझे टैक्सी मिल सकती थी - शायद वह जगह बान्द्रा थी। वहां से मैंने टैक्सी पकड़ी और अपनी चाची के अस्पताल पहुंचा। 

शुक्र था कि पैर की हड्डी नहीं टूटी थी। केवल मामुली सी चोट थी। कस्बे में वापस आने पर शुभा ने पूछा कि मैं कैसे मुन्ने को गोदी पर उठा कर इतनी दूर चल सका। मैंने कहा, 
'यदि उस दिन मुझे मुन्ने को उठा कर अस्पताल तक ले जाना होता तो भी मैं यह कर पाता। वह पल ही ऐसा था। लगता था कि मेरे शरीर में हनुमान जी आ गये थे।'

ऐसे ज्ञान जी की उस चिट्ठी पर, दिनेश जी ने भी पते की बात कही,
'बच्चों को समय देना ही चाहिए, जितना दे सकें।'
इसका अपना महत्व है। उस दिन यदि मैं मुन्ने को उठा कर न ले आ पाता, तब भी उसे कुछ न होता क्योंकि उसे साधारण चोट आयी थी। लेकिन मैं वह कर सका, यह मुझे और बेटे राजा को ज्यादा करीब ले गया। 

मुझे हमेशा लगता है यदि आप घूमने जायें तब हमेशा बच्चों को साथ ले जायें। उनके साथ समय व्यतीत करें। मैंने कई दिन और बेटे के साथ, रात में तारे देखते, ताराघरों, पुस्तक मेला और पुस्तकों की दुकानों के चक्कर लगाते हुऐ, खेल के मैदान में खेलते हुऐ, चिड़ियाघर,  और राष्ट्रीय उद्यान में जानवरों के देखते बितायें हैं। इनमें से कुछ बिताये पलों को,  'पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा', 'सफलता हमेशा काम के बाद आती है', 'प्रेम तो है बस विश्वास, इसे बांध कर रिशतों की दुहाई न दो' 'यौन शिक्षा' 'दूसरे की गलती से सीखने वाले, बुद्धिमान होते हैं' 'बच्चे व्यवहार से सीखते हैं, न कि उपदेश से', 'क्या टैटूईन ग्रह की तरह हमारे भी दो सूरज होंगे' चिट्ठियों में लिखा भी है। 

कुछ यही बात मैं अपनी चिट्ठी 'पुरुष बच्चों को देखे - महिलाएं मौज मस्ती करें' में कहने का प्रयत्न किया था लेकिन शायद पहले वह स्पष्ट नहीं था।

बेटे राजा, परी, भारत में आज बसन्त का त्योहार है। आज का दिन तुम दोनो के लिये महत्वपूर्ण है। 
इसे संजो कर रखना। अपने आने वाली पीढ़ी के लिये, मेरी बात का भी ध्यान रखना।


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