चलत मुसाफिर मोह लिया रे ऽऽऽ, पिंजड़े ऽऽऽ वाली मुनिया

मुझे सुनील दीपक जी से ईर्ष्या होती है, उनका काम उन्हें दुनिया के कोने कोने में ले जाता है। एक हम हैं, बस अपने देश तक ही रह गये - कूप मंडूक। मुन्ने की मां ने कुछ साल तक अमेरिका और कैनाडा में पढ़ाया। वह छुट्टियों मैं भारत आ जाती थी पर एक बार नहीं आयी और मैं ही उसके पास चला गया। बस तब ही इन देशों को देख सका।

मेरा काम दीपक जी जैसा अच्छा तो नहीं पर इतना बुरा भी नहीं। यह कम से कम अपने देश में विभिन्न शहरों में ले जाता है। पिछले महीने मुझे एक दिन अर्ध कुम्भ मेले में संगम तट पर रहने का मौका मिला। कुम्भ मेले के बारे में कई कथायें हैं पर सच में यह खगोलशास्त्र के कारण १२ साल में एक बार आता है। अब आप कहेंगे - खगोलशास्त्र! जी हां, खगोलशास्त्र, आपने सही सुना।

बृहस्पति ग्रह, गुरु के नाम से भी जाना जाता है। इसका धार्मिक महत्व है। यह १२ साल में एक बार सूरज का चक्कर लगा लेता है। इसलिये कुम्भ मेला १२ साल में एक बार होता है। १२ साल बहुत लम्बा समय होता है इसीलिये कालांतर, ६ साल बाद अर्ध कुम्भ होने लगा और फिर हर साल माघ मेला।

कुम्भ मेले के समय यहां पर नज़ारा ही अलग होता है। कभी मौका मिले तो जरूर देखियेगा। मार्क टुल्ली जो बीबीसी के सम्वाददाता रहें हैं उन्होने एक पुस्तक
NO FULL STOPS IN INDIA नाम की लिखी है। इसमें एक लेख १९८९ के कुम्भ मेले के ऊपर है। यह पढ़ने योग्य है। इसमें कुम्भ मेले के बारे में काफी सामग्री है। १९८९ के कुम्भ मेले के बारे में, वे कहते हैं कि,
'No other country in the world could provide a spectacle like Kumbh Mela. It was a triumph for the much maligned Indian administrators, but it was a greater triumph for the people of India.'
अंग्रेजी मिडिया की १९८९ के कुम्भ मेले के बारे में रिपोर्ट अच्छी नहीं थी। मार्क उसकी आलोचना करते हैं, लिखते हैं कि,
'And how did English language press react to this triumph? Inevitably, with scorn. .... made no attempt to analyse or even to describe the piety of the millions who bathed at the Sangam'
मुझे लगता है अंग्रेज हमें ज्यादा अच्छी तरह से समझते थे और शायद अब भी। कोई कारण नहीं वे हम पर २०० साल से ज्यादा राज्य कर गये।

सर्दी के मौसम में, संगम पर, हर साल बाहर से चिड़ियाँं आती हैं - कुछ ऐसा नजारा रहता है ...

इस बार अर्ध कुम्भ मेले में बाबा रामदेव भी आये थे। इसकी काफी चर्चा थी पर मुझे तो वहां तो मुझे बाबा रामदेव नहीं मिले। मेरी मुलाकात तो हुई बाबा ....

लोग कहते हैं कि इस मौके पर वहां लाखों की तादात पर लोग आये पर उस सब भीड़ में तो मुझे यह मिले, एकदम अकेले ...

यह मत पूछियेगा कि मैंने उसे उठा कर चूमा कि नहीं। यह जवाब तो मुन्ने की मां ने टौमी, अरे वही हमारा प्यारा डौगी की चिट्ठी पर दिया है।

यहां किताबों की दुकान भी थी। मैंने कुछ समय उस दुकान पर भी बिताया। उसने बताया कि वह रोज लगभग १५०-२०० रुपये की पुस्तक/ पोस्टर बेच लेता है और पोस्टरों की
बिक्री, पुस्तकों से ज्यादा है। उसे दुकान लगाने के लिये उसे प्रशासन से लाईसेन्स लेना पड़ा था और लाईसेन्स फीस भी देनी पड़ी थी।

जमुना के एक तरफ यदि किलाघाट है तो दूसरी तरफ अरैल। कुम्भ मेले पर वहां पर लोग अक्सर नाव से एक तरफ से लोग दूसरी तरफ जाते हैं। किलाघाट में हनुमान जी का मन्दिर है, जहां पर हनुमान जी की एक लेटी हुई मूर्ती है। मैं नाव के द्वारा अरैल से किलाघाट पर आ रहा था। उस नाव में बहुत सारी ग्रामीण महिलायें वा लड़कियां थी। वे लेटे हुऐ हनुमान जी के दर्शन करने जा रहीं थी। उन महिलाओं ने मुझे नारंगी और लाल सिंदूर का अन्तर बताया। नारंगी सिंदूर का धार्मिक महत्व होता है। यह हमेशा देवी देवताओं को - खासतौर से हनुमान जी के ही - लगाया जाता है। मेरे पास उस समय कैमरा नहीं था इसलिये फोटो नहीं ले सका।

मुझे इन महिलाओं से बात कर अच्छा लगा। यह मुझसे ज्यादा प्रसन्न और जीवन से संतुष्ट लगीं। मैं भगवान पर विश्वास नहीं करता; न ही मन्दिर या मस्जिद या गिरिजाघर जाता हूं; न ही धर्म में दिलचस्पी रहती है। इन लोगों से बात कर लगा कि शायद मेरा दर्शन गलत है, मेरी जीवन शैली गलत है, मैं ही गलत रास्ते पर हूं।

यह महिलायें हनुमान जी की स्तुति करते हुऐ एक भजन गा रही थी। यह कर्ण प्रिय था। यह सुना-सुना सा लगा पर समझ नहीं पाया। लगता था कि किसी प्रिय गाने की धुन पर है पर यह समझ में नहीं आ रहा था कि किस गाने की धुन पर है। बात चीत के साथ, भजन का भी आनन्द चलता रहा और किला घाट आ गया। हम सब उतर गये पर दिमाग से भजन नहीं उतरा।

थोड़ी देर पैदल चलने बाद याद आया कि यह भजन तीसरी कसम के एक गाने की धुन पर था। नहीं, नहीं - गलत कह गया। तीसरी कसम का गाना लोकगीत के धुन पर था। तीसरी कसम का संगीत लोकगीत पर आधारित है इसलिये संगीत लोकप्रिय हुआ। वह लोकगीत तो नहीं मालुम पर गाना सुनते आप धुन समझ सकते हैं। वह गाना है,
'चलत मुसाफिर मोह लिया रे ऽऽऽ, पिंजड़े ऽऽऽ वाली मुनिया'

मेले में घूमते, घूमते, मेरे मन में यही विचार आता रहा,

चलत मुसाफिर मोह लिया रे ऽऽऽ,
धरम वाल भजनवा
उड़ उड़ बैठ भजनवा मनवा
जीवन में सब रस घोल दिया रेऽऽऽ,
धरम वाल भजनवा


२६ फरवरी २००७ को, इसी चिट्ठी के साथ मैंने पूरे किये हिन्दी चिट्ठे जगत के रंग, रस, और प्रेम में एक साल। मेरी उपलब्धि, इस उन्मुक्त चिट्ठे पर१३७, छुटपुट पर ५२, लेख पर १० चिट्ठियां, (कुल १९९ चिट्ठियां) बकबक पर १५ पॉडकास्ट, और ... टिप्पिणियां (बताने शर्म आती है)। मैं हिन्दी विकीपीडिया का सदस्य हूं और वहां पर यथा संभव सहयोग करता हूं जो यहां है। अब मैं उभरता हुआ चिट्ठेकार नहीं रहाः अब हो गया हूं - वरिष्ट चिट्ठेकार :-)

'चलत मुसाफिर मोह लिया रे ऽऽऽ, पिंजड़े ऽऽऽ वाली मुनिया' गीत का यहां आनन्द लीजिये

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