हरिवंश राय बच्चन
भाग-१: क्या भूलूं क्या याद करूं
पहली पोस्ट: विवादभाग-१: क्या भूलूं क्या याद करूं
दूसरी पोस्ट: क्या भूलूं क्या याद करूं
भाग-२: नीड़ का निर्माण फिर
तीसरी पोस्ट: तेजी जी से मिलनचौथी पोस्ट: इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अध्यापक
पांचवीं पोस्ट: आइरिस, और अंग्रेजी
छटी पोस्ट: इन्दिरा जी से मित्रता,
सातवीं पोस्ट: मांस, मदिरा से परहेज
आठवीं पोस्ट: पन्त जी और निराला जी
नवीं पोस्ट: नियम
भाग-३: बसेरे से दूर
दसवीं पोस्ट: इलाहाबाद से दूरभाग -४ दशद्वार से सोपान तक
यह पोस्ट: अमिताभ बच्चनअगली बारवीं पोस्ट: रूस यात्रा
यह बच्चन जी की जीवनी का चौथा एवं अंतिम भाग है। बच्चन जी इलाहाबाद में क्लाईव रोड पर जिस बंगले में रहते थे, उसके कमरों में दरवाजे, खिड़कियों और रोशनदान को मिलाकर १०-१० खुली जगहें थी, इसलिये उसका नाम उन्होंने दशद्वार रख दिया।
सोपान का अर्थ है: सीढ़ी। बच्चन जी जब दिल्ली गये तो वहां पर वे लेखकों व पत्रकारों की सहकारी समिति के सदस्य बन गये। इस सहकारी समिति को गुलमोहर पार्क में कुछ जमीन मिली जिसमें एक प्लाट बच्चन जी को भी मिला। इस पर वहां बच्चन जी ने एक तिमंजिला मकान बनाया। जिसकी मजिंलो को एक लम्बी सीढ़ी जोड़ती है जो नीचे से ऊपर तक एक साथ देखी जा सकती है। इस घर में प्रवेश करने पर सबसे पहले दिखती है , इसलिये इस मकान का नाम उन्होंने सोपान रखा।
इस भाग में, बच्चन जी ने इलाहाबाद से निकल कर जो जीवन बिताया, उसका वर्णन है। जाहिर है, इसमें उनके विदेश मंत्रालय से सम्बन्धित संस्मरण, दिल्ली की राजनैतिक गतिविधियां (जिसमें इमरजेंसी भी है), अमिताभ बच्चन का सिनेमा जगत में उदय और करोड़ों लोगों का चहेता अभिनेता बनने की कहानी है। यह उनके जीवन का सबसे खुशहाल समय भी रहा। इन क्षणों में वे इलाहाबाद की अच्छी बातों को याद करते हैं और कहीं न कहीं उसका अहसान मन्द भी दीखते हैं।
अमिताभ बच्चन ने जिन ऊंचाइयों को छुआ, वह किसी भी पिता के लिये एक हर्ष की बात हो सकती है और इस भाग में वे बहुत कुछ अमिताभ बच्चन के बारे में है। अमिताभ के अभिनय की क्षमता के बारे में कहते हैं कि,
'मुझे याद है १९४२ के "भारत छोड़ो" आंदोलन के समय जब इमर्जेसी लगा दी गई थी, और युनिवर्सिटी दो-तीन महीने के लिए बंद करा दी गई थी तो हम दोनों घर पर शेक्सपियर के नाटकों की प्ले-रीडिंग किया करते थे। अमित पेट में था। अब हमसे लोग पूछते हैं कि अमिताभ में अभिनय की प्रतिभा कहॉं से आई। मैं उन दिनों की याद कर एक प्रति-प्रश्न उछाल देता हूँ, "अभिमन्यु ने चक्रव्यूह भेदने की क्रिया कहॉं से सीखी?”
अमिताभ बच्चन शुरू में इलाहाबाद में ब्यॉज हाई स्कूल में पढ़े और फिर शेरवुड, नैनीताल पढ़ने के लिए चले गये। वे, स्कूल के नाटकों में भाग लेते थे और पर जीवन में वे इंजीनियर बनना चाहते थे। बी.एस.सी. के बाद उनका यह सपना टूट गया और वे कलकत्ता नौकरी करने चले गये। इसका बात को वे कुछ इस प्रकार से बताते हैं,
'अमिताभ अपने इंजीनियर बनने का सपना से रहे थे।
तीन वर्ष बाद कम्पार्टमेन्टल से उन्होंने बी.एस.सी. की।
इंजीनियर बनने का सपना पूरी तरह ध्वस्त हो चुका था।
...
अमिताभ ने अपने स्नातकीय डिग्री के लिए विज्ञान लेकर अपनी मूल प्रवृत्ति को पहचानने में भूल की थी; परीक्षा-परिणाम संतोषजनक नहीं हुआ। विज्ञान लेकर आगे पढ़ने का रास्ता अब बंद हो गया था।'
मैंने सुना था कि अमिताभ बच्चन ने ऑल इन्डिया रेडियो पर समाचार पढ़ने के लिये आवेदन पत्र दिया था जो कि स्वीकर नहीं हुआ था - उनकी आवाज ठीक नहीं पायी गयी थी। मुझे इस पर कभी विश्वास नही होता था, पर यह सव है। बच्चन जी लिखते हैं कि,
'आल इंडिया रेडियो में कुछ समाचार पढ़ने वाले लिए जाने वाले थे। अमित ने प्रार्थना पत्र भेज दिया। उन्हें आवाज-परीक्षण के लिए बुलाया गया, पर उनकी आवाज ना-काबिल पाई गई। पता नहीं रेडियों वालों के पास अच्छी आवाज का मापदंड क्या था। आज तो अमिताभ के अभिनय में आवाज उनका खास आकर्षण माना जाता है। पर अच्छा हुआ वे रेडियो में नहीं लिए गए। वहॉं चरमोत्कर्ष पर भी पहुँच कर वे क्या बनते? - “मूस मोटाई लोढ़ा होई।" हमारी असफलता और नैराश्य में भी कभी-कभी हमारा सौभाग्य छिपा रहता है।'
अमिताभ बच्चन की बात हो और जया भादुड़ी का जिक्र न आये - यह तो हो ही नहीं सकता। बच्चन जी पर उसकी पहली छाप के बारे में तो उन्ही से सुनना ठीक रहेगा,
'जया कद में नाटी, शरीर से न पतली, न मोटी, रंग से गेहुँआ; उसकी गणना सुंदरियों में तो न की जा सकती थी, पर उसमें अपना एक आकर्षण था, विशेषकर उसके दीर्घ-दीप्त नेत्रों का, और उसके सुस्पष्ट मधुर कंठ का। एक अभाव भी उसमें साफ था—समान अवस्था की लड़कियों की सहज सुलभ लज्जा का, पर फिल्म में काम करने वाली लड़की से उसकी प्रत्याशा भी न की जा सकती थी।'
इस भाग को पढ़ने के बाद, मुझे अमिताभ बच्चन की दो बातें बहुत अच्छी लगीं। पहली यह कि उन्होने अपने माता-पिता को हमेशा सम्मान दिया। अक्सर लोग अपने वृद्ध माता-पिता को भूल जाते हैं।
दूसरा उनका अपने पुराने सहयोगियों तथा कर्मचारियों के साथ व्यवहार। अक्सर लोग जब बड़े आदमी हो जाते हैं तो अपने मुश्किल समय के लोगों को भूल जाते हैं, अमिताभ बच्चन ने ऐसा नहीं किया। यह बात बच्चन जी को भी बहुत अच्छी लगी। एक बार कलकत्ता में पिक्चर शूटिंग के दौरान उनके व्यवहार के बारे में बच्चन जी लिखते हैं,
'एक शाम को उन्होंने याद कर-करके बर्ड और ब्लैकर्स के अपने पूर्व सहयोगियों को चाय पर आमंत्रित किया और एक-एक से ऐसे मिले जैसे अब भी उनके बीच ही काम कर रहे हों। वे लोग भी अमिताभ की इस भंगिमा से बहुत प्रसन्न हुए। कई तो अपने बच्चों को साथ लाए जो अमिताभ के फैन हो गए थे और जिनकी आँखें यह विश्वास न कर पाती थीं कि यही व्यक्ति उनके पापा या डैडी के साथ बरसों काम कर चुका है। कभी उनके दफ्तर के पुराने चपरासी आदि भी आते तो वे उनको बुला लेते, खुशी से मिलते; और वे तो अपना भाग्य सराहते विदा लेते। अमिताभ की इस मानवीयता ने उनके कलाकार को कितना उठाया है शायद स्वयं उन्हें भी अभी इसका अंदाजा नहीं है।'
इस भाग को पढ़ने से यह भी पता लगा कि अमिताभ को अभिनेता के मार्ग में प्रोत्साहित करने में सबसे बड़ा हाथ उनके छोटे भाई अजिताभ का था। बच्चन जी को कई बार रूस जाने का मौका मिला। एक बार अजिताभ ने उनसे एक खास तरह का कैमरा मंगवाया जो बहुत ही मंहगा था। उस समय, यह उनकी समझ में नहीं आया कि वह क्यों इतना महंगा कैमरा मगंवा रहा है। इसका भेद तो बाद में खुला। उसने कैमरे से अमिताभ बच्चन की खास फोटो लेकर फिल्म जगत के लोगों को दिया ताकि अमिताभ बच्चन का फिल्म जगत में रास्ता खुल सके।
इस भाग में बच्चन जी की रूस यात्रा और वहां के कई शहरों का भी वर्णन है। मैं कभी वहां नहीं गया पर मुन्ने की मां गयी है। वह भी उन शहरो में गयी, जहां बच्चन जी गये थे। इस सीरिस का अगला भाग रूस यात्रा के बारे में, मुन्ने की मां से, उसी के चिट्ठे पर, उसी के द्वारा।
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