हरिवंश राय बच्चन
भाग-१: क्या भूलूं क्या याद करूं
पहली पोस्ट: विवादभाग-१: क्या भूलूं क्या याद करूं
दूसरी पोस्ट: क्या भूलूं क्या याद करूं
भाग-१: नीड़ का निर्ममाण फिर
तीसरी पोस्ट: तेजी जी से मिलनचौथी पोस्ट: इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अध्यापक
पांचवीं पोस्ट: आइरिस, और अंग्रेजी
छटी पोस्ट: इन्दिरा जी से मित्रता,
सातवीं पोस्ट: मांस, मदिरा से परहेज
यह पोस्ट: पन्त जी और निराला जी
अगली पोस्ट: नियम
कलाकार भी कुछ अजीब होते हैं सुमित्रा नन्दन पंत जहां सुकुमार, वहां निराला जी पहलवान। इनके सम्बन्ध भी कुछ अजीब थे इन सम्बन्धों की चर्चा बच्चन जी नीड़ का निर्माण फिर में करते हैं वे लिखते हैं कि,
‘पंत और निराला एक-दूसरे से जितने "एलर्जिक" (एक-दूसरे के लिए कितने असह्य) थे, इसका अनुभव पहली बार मुझे हुआ। निराला जी उन दिनों पहलवानी मुद्रा में रहते थे, पांव में पंजाबी जूता, कमर में तहमद, बदन पर ढीला, लम्बा कुर्ता, सिर पर पतली साफी। कहीं अखाड़ा लोटकर चेहरे और मुंडे सिर पर मिट्टी भी पोत आते थे। आमना-सामना दोनों का कभी हो ही जाता।‘
एक दिन तो दोनों में कुश्ती ही हो गयी।
‘निराला जी पंत जी को देखते तो अवज्ञा से पीठ या मुंह फेर लेते । पंत जी निराला को देखते तो अपने कमरे में जा बैठते। एक दिन तो निराला जी मेरे ड्राइंग रूम में आ धमके और उन्होंने पंत जी को कुश्ती के लिए ललकारा। उसका वर्णन मैं ‘नए पुराने झरोखे’ के एक निबन्ध ‘यह मतवाला-निराला’ में कर चुका हूँ। निराला जी के देहावसान के बाद उनके बारे में अद्भुत- अद्भुत संस्मरण लोगों ने गढ़े। खैरियत यह हुई कि उस दिन अमृत लाल नागर पंत जी के साथ बैठे हुए थे। और जो मैंने लिखा, उसके वे साक्षी हैं। यह मैंने संस्मरण में नहीं लिखा था - अमृत लाल ने बाद में कहा था कि अगर निराला पंत पर झपटते तो मैं उनसे पिल पड़ता। अपने मनोविकारों से ग्रस्त-विवश निराला मुझे इससे दयनीय कभी नहीं दिखे।‘
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