प्राचीन भारत में खगोल शास्त्र: ... टोने टुटके

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पहले के ज्योतिषाचार्य वास्तव में उच्च कोटि के खगोलशास्त्री थे और अपने देश के खगोलशास्त्री दुनिया में सबसे आगे। अपने देश में तो ईसा के पूर्व ही मालुम था कि पृथ्वी सूरज के चारो तरफ चक्कर लगाती है। यजुर्वेद के अध्याय ३ की कण्डिका ६ इस प्रकार है,
आयं गौ: पृश्रिनरक्रमीदसदन् मातरं पुर: ।
पितरं च प्रचन्त्स्व:।।

डा. कुँवर चन्द्र प्रकाश सिंह द्वारा इसका काव्यानुवाद एवं टिप्पणी की है। इसे भुवन वाणी ट्रस्ट, मौसम बाग, सीतापुर रोड, लखनऊ-२२६०२० ने प्रकाशित किया है। उन्होंने इस कण्डिका में काव्यानुवाद व टिप्पणी इस प्रकार की है ,
'प्रत्यक्ष वर्तुलाकार सतत गतिशीला।
है अंतरिक्ष में करती अनुपम लीला।।
अपनी कक्षा में अंतरिक्ष में संस्थित।
रवि के सम्मुख हैं अविरत प्रदक्षिणा-रत।।
दिन, रात और ऋतु-क्रम से सज्जित नित नव।
माता यह पृथ्वी अपनी और पिता दिव।।
हे अग्नि। रहो नित दीपित, इस धरती पर।
शत वर्णमयी ज्वालाओं से चिर भास्वर।।
फैले द्युलोक तक दिव्य प्रकाश तुम्हारा।
मेघों में विद्युन्मय हो वास तुम्हारा।।
लोकत्रय में विक्रम निज करो प्रकाशित।
त्रयताप- मुक्त हो मानव पर निर्वृत्तिरत।।

टिप्पणी - यह मंत्र बड़ा कवित्वपूर्ण है। इसमें अग्नि के पराक्रम का चित्रात्मक वर्णन है। इसमें श्लेषालंकार है। ‘गौ पृश्नि:’ का अर्थ गतिशील बहुरंगी ज्वालाओं वाला अग्नि किया गया है। महर्षि दयानन्‍द ने ‘गौ:’ का अर्थ पृथ्वी किया है। यह पृथ्वी अपनी कक्षा में सूर्य के चारों ओर अंतरिक्ष में घूमती है। इसी से दिन-रात, कृष्ण-शुक्ल पक्ष, अयन, वर्ष, ऋतु आदि का क्रम चलता है। अनुवाद में यही अर्थ ग्रहण किया गया है। अग्नि पृथ्वी का पुत्र भी कहा गया है। इस मंत्र में विशेष ध्यान देने की बात है- पृथ्वी का अपनी कक्षा में सूर्य के चारों ओर घूमना। इससे सिद्ध है कि वैदिक ऋषि को पृथ्वी के सूर्य के चारों ओर घूमने का ज्ञान था।'

याज्ञवल्क्य (ईसा से दो शताब्दी पूर्व) हुऐ थे। उन्होने यजुर्वेद पर काम किया था। इसलिये यह कहा सकता है कि अपने देश ईसा के पूर्व ही मालुम था कि पृथ्वी सूरज के चारो तरफ घूमती है। यूरोप में इस तरह से सोचना तो 14वीं शताब्दी में शुरु हुआ।

आर्यभट्ट (प्रथम) (४७६-५५०) ने आर्य भटीय नामक ग्रन्थ की रचना की। इसके चार खंड हैं:
  1. गीतिकापाद
  2. गणितपाद
  3. काल क्रियापाद
  4. गोलपाद
गोलपाद खगोलशास्त्र (ज्योतिष) से सम्बन्धित है और इसमें ५० श्लोक हैं। इसके नवें और दसवें श्लोक में इस बात को समझाया गया है।

भास्कराचार्य ( १११४-११८५) ने सिद्धान्त शिरोमणी नामक पुस्तक चार भागों में लिखी है:
  1. पाटी गणिताध्याय या लीलावती (Arithmetic)
  2. बीजागणिताध्याय (Algebra)
  3. ग्रह गणिताध्याय (Astronomy)
  4. गोलाध्याय
इसमें प्रथम दो भाग स्वतंत्र ग्रन्थ हैं और अन्तिम दो सिद्धांत शिरोमणी के नाम से जाने जाते हैं। सिद्धांत शिरोमणी में इसे और आगे बढ़ाया गया है।

अगली बार हम लोग यूरोप में खगोल शास्त्र के बारे में बात करेंगे।

अन्य चिट्ठों पर क्या नया है इसे आप दाहिने तरफ साईड बार में, या नीचे देख सकते हैं।


मुझे संस्कृत नहीं आती है इसी लिये इस पुस्तक से इसका अर्थ उद्धृत किया है। हमें से संस्कृत के ज्ञाता या शायद डा. व्योम उसकी ज्यादा अच्छी व्यााख्या करें

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